शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मृत पूर्वजों के कृत्य


मृत पूर्वजों के कृत्य

अति प्राचीन काल में मृत पूर्वजों के लिए केवल तीन कृत्य किये जाते थे:-
  1. पिण्डपितृयज्ञ (उनके द्वारा किया गया जो श्रौताग्नियों में यज्ञ करते थे) या मासिक श्राद्ध (उनके द्वारा जो श्रौताग्नियों में यज्ञ नहीं करते थे)[158],
  2. महापितृयज्ञ एवं
  3. अष्टकाश्राद्ध।
प्रथम दो का वर्णन इस ग्रन्थ के खण्ड 2, अध्याय 30 एवं 31 में हो चुका है। अष्टका श्राद्धों के विषय में अभी तक कुछ नहीं बताया गया है। इनका विशिष्ट महत्त्व है, किन्तु इनके सम्पादन के दिनों एवं मासों, अधिष्ठाता देवों, आहुतियों एवं विधि के विषय में लेखकों में मतैक्य नहीं है।
गौतम.[159] ने अष्टका को सात पाकयज्ञों एवं चालीस संस्कारों में परिगणित किया है। लगता है, 'अष्टका' पूर्णिमा के पश्चात् किसी मास की अष्टमी तिथि का द्योतक है।[160] शतपथ ब्राह्मण[161] में आया है–'पूर्णिमा के पश्चात् आठवें दिन वह (अग्निचयनकर्ता) अग्नि-स्थान (चुल्लि या चुल्ली, चूल्ही या चूल्हे) के लिए सामग्री एकत्र करता है, क्योंकि प्रजापति के लिए (पूर्णिमा के पश्चात्) अष्टमी पवित्र है और प्रजापति के लिए यह कृत्य पवित्र है।' जैमिनिय[162] के भाष्य में शबर ने अथर्ववेद[163] एवं आपस्तम्ब मंत्र पाठ [164] में आये हुए मंत्र को अष्टका का द्योतक माना है। मंत्र यह है–'वह (अष्टका) रात्रि हमारे लिए मंगलकारी हो, जिसका लोग किसी की ओर आती हुई गौ के समान स्वागत करते हैं, और जो वर्ष की पत्नी है।'[165] अथर्ववेद[166] में संवत्सर को एकाष्टका का पति कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता[167]में आया है कि 'जो लोग संवत्सर सत्र के लिए दीक्षा लेने वाले हैं उन्हें एकाष्टका के दिन दीक्षा लेनी चाहिए, जो एकाष्टका कहलाती है। वह वर्ष की पत्नी है।' जैमिनिय[168] ने एकाष्टका को माघ की पूर्णिमा के पश्चात् की अष्टमी कहा है। आपस्तम्ब गृह्यसूत्र[169] ने भी यही कहा है। किन्तु इतना जोड़ दिया है कि उस तिथि (अष्टमी) में चन्द्र ज्येष्ठा नक्षत्र में होता है।[170] इसकी अर्थ यह हुआ कि यदि अष्टमी दो दिनों की हो गयी तो वह दिन जब चन्द्र ज्येष्ठा में है, एकाष्टका कहलायेगा। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र[171] ने भी एकाष्टका को वर्ष की पत्नी कहा है।'[172]

अष्टका कृत्य

आश्वलायन गृह्यसूत्र[173] के मत से अष्टका के दिन (अर्थात् कृत्य) चार थे, हेमन्त एवं शिशिर (अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष, माघ एवं फाल्गुन) की दो ऋतुओं के चार मासों के कृष्ण पक्षों की आठवीं तिथियाँ। अधिकांश में सभी गृह्यसूत्र, यथा–मानवगृह्यसुत्र[174], शांखायन गृह्यसूत्र[175], खादिरगृह्यसूत्र[176], काठकगृह्यसूत्र[177], कौषितकि गृह्यसूत्र[178] एवं पार. गृह्यसूत्र[179] कहते हैं कि केवल तीन ही अष्टका कृत्य होते हैं; मार्गशीर्ष (आग्रहायण) की पूर्णिमा के पश्चात् आठवीं तिथि (इसे आग्रहायणी कहा जाता था); अर्थात् मार्गशीर्षपौष (तैष) एवं माघ के कृष्ण पक्षों में। गोभिलगृह्यसूत्र[180] ने लिखा है कि कौत्स के मत से अष्टकाएँ चार हैं और सभी में मास दिया जाता है, किन्तु गौतम, औदगाहमानि एवं वार्कखण्डि ने केवल तीन की व्यवस्था दी है। बौधायन गृह्यसूत्र[181] के मत से तैष, माघ एवं फाल्गुन में तीन अष्टकाहोम किये जाते हैं।

अन्वष्टका कृत्य



यद्यपि आपस्तम्बगृह्यसूत्र[182] एवं शांखायन गृह्यसूत्र[183] का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य में पिण्डपितृयज्ञ की विधि मानी जाती है, किन्तु कुछ गृह्यसूत्र[184] इस कृत्य का विशद वर्णन करते हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं विष्णु धर्मसूत्र[185] ने मध्यम मार्ग अपनाया है। आश्वलायन गृह्यसूत्र का वर्णन अपेक्षाकृत संक्षिप्त है। यह ज्ञातव्य है कि कुछ गृह्यसूत्रों का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य कृष्ण पक्ष की नवमी या दशमी को किया जाता है।[186] इसे पारस्कर गृह्यसूत्र[187]मनु[188] एवं विष्णु धर्मसूत्र[189]0 ने अन्वष्टका की संज्ञा दी है। अत्यन्त विशिष्ट बात यह है कि इस कृत्य में स्त्री पितरों का आहावान किया जाता है और इसमें जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उनमें सुरा, माँड़, अंजन, लेप एवं मालाएँ भी सम्मिलित रहती हैं। यद्यपि आश्वलायन गृह्यसूत्र[190] आदि ने घोषित किया है कि अष्टका एवं अन्वष्टक्य मासिक श्राद्ध या पिण्डपितृयज्ञ पर आधारित हैं तथापि बौधायन गृह्यसूत्र[191], गोभिलगृह्यसूत्र[192] एवं खादिर गृह्यसूत्र[193] ने कहा है कि अष्टका या अन्वष्टक्य के आधार पर ही पिण्डपितृयज्ञ एवं अन्य श्राद्ध किये जाते हैं। काठक गृह्यसूत्र[194] का कथन है कि प्रथम श्राद्ध, सपिण्डिकरण जैसे अन्य श्राद्ध, पशुश्राद्ध (जिसमें पशु का मांस अर्पित किया जाता है) एवं मासिक श्राद्ध अष्टका की विधि का ही अनुसरण 
करते हैं।



माध्यावर्ष कृत्य

आश्वलायन गृह्यसूत्र[195] में माध्यावर्ष नामक कृत्य के विषय में दो मत प्रकाशित किये गये हैं। नारायण के मत से यह कृत्य भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तीन तिथियों में, अर्थात् सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी को किया जाता है। दूसरा मत यह है कि यह कृत्य अष्टकाओं के समान ही है जो भाद्रपद की त्रयोदशी को सम्पादित होता है। जबकि सामान्यत: चन्द्र मघा नक्षत्र में होता है। इस कृत्य के नाम में संदेह है, क्योंकि पाण्डुलिपियों में बहुत से रूप प्रस्तुत किये गये हैं।

अन्वाहार्य श्राद्ध

  • गोभिलगृह्यसूत्र[196] में अन्वाहार्य नामक एक अन्य श्राद्ध का उल्लेख हुआ है जो कि पिण्डपितृयज्ञ उपरान्त उसी दिन सम्पादित होता है।
  • शांखायन गृह्यसूत्र[197] ने पिण्डपितृयज्ञ से पृथक् मासिक श्राद्ध की चर्चा की है।
  • मनु[198] का कथन है–'पितृयज्ञ (अर्थात् पिण्डपितृयज्ञ) के सम्पादन के उपरान्त वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्री अर्थात् आहिताग्नि है, प्रति मास उसे अमावास्या के दिन पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना चाहिए।

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